खंड खंड

खंड खंड

रहा में खंड खंड
पिघलता
बहता रहा
मिलता रहा गंदे नालो में
जो चढ़ते रहे
ऊपर और ऊपर
आते रहे बढे शहरो से
कस्बो में
गावं में
मैला करते रहते रहे
गलीऔ को
पुन्ग्ड़ो को
जवानो को
और संस्कारो को
मेँ खड़ा रहा उत्तर में
खंड खंड
सोचता रहा
क्या हुआ ये
कँहा पंहुचे हम
सोचा पुछु बाड़ा से
जो बैठा था
बड़े से ढुंगमा
थकी आंखे
रुके सपने
सोचता था
क्या सोचा था
क्या पाया
शायद खोया ही खोया
पुछा मैने
क्या हुआ बौड़ा
क्यों पाया ये दंड
बन के खंड खंड
क्या बुन अब बेटा
जिनको दी थी पतवार
जिनको बनाया था बाड़
वो ही खाते रहे
ले जाते रहे अपनों को पार
परिवार दर परिवार
हमार नौना नौनी के
सपन्नो पे चढ़ के
होते रहे पार
अब घाम ही अपनी छ
गावो में मवासी घाम कर
शहर के सूबेदरो के
घरो में घाम करने को
इस पीढ़ी का है ये दंड
यहीवजह थी बनाने की
उत्तर में खंड
ताकि हम रहे खंड खंड
और वो रहे अ खंड
बाड़ा ने उठते हुए बोला
बेटा समय का चक्र
है बड़ा ऊदंड
आज यंहा है तो कल
वंहा होगा दंड

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